प्राइमरी एजुकेशन पर बेस्ड मास्साब में दिखेगी शिक्षा की हालत, बुंदेलखंड में हुई शूट
प्राथमिक शिक्षा की बदहाली को दर्शाती मास्साब ऐसी फिल्म है, जिसके एक संवाद से ही इस पूरी बदहाल व्यवस्था को समझा जा सकता है। नकली प्रिंसिपल, नकली स्कूली इंस्पेक्टर, नकली मास्टर… और सिर्फ मिड डे मील खाने आने वाले बच्चे। इन सब के बीच आए नए मास्साब आशीष कुमार (शिव सूर्यवंशी) अजूबे लगते हैं। जिन्हें सिर्फ पढ़ाने का जुनून है। सुधारने का जुनून है और समूची बीमार व्यवस्था को बदल डालने का जुनून है। मास्साब सिर्फ पढ़ाना नहीं चाहते, बच्चों को सिखाना चाहते हैं और इसी सिखाने की दिशा में उन्हें हर कदम पर समाज से सीख
मिलती रहती है कि सुधारना इतना भी आसान नहीं।
फिल्म की कहानी बुंदेलखंड के एक गांव में चलती है, जहां एक नए मास्टर प्रायमरी स्कूल में आए हैं। पढ़ाने का जुनून ऐसा, कि ‘कलेक्टरी’ छोड़ कर टीचर बने। निर्देशक (आदित्य ओम) ने बहुत खूब खूबसूरती से, बच्चों के मनोभाव पकड़े हैं। गांव की लोकेशन को बहुत विश्वसनीय ढंग से परदे पर उतारा है। निर्देशक ने कुशलता से फिल्म को डॉक्यूमेंट्री होने से बचाया है। क्योंकि सिनेमा में किसी सामाजिक विषय को उठाने में यह खतरा हमेशा बना रहता है। प्रायमरी शिक्षा ऐसा विषय है, जिस पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है और यही विषय सिनेमा से दूर रहा है। बच्चों ने बहुत सधा हुआ अभिनय किया है। वे किसी कुशल अभिनेता की तरह सहज रहे हैं। फिल्म में घटना-दर-घटना इस विषय के हर पहलू से परिचित कराती चलती है।
हकलाने वाली बच्ची रमा देवी (कृतिका सिंह) का वाद-विवाद में आत्मविश्वास के बोलना, दर्शकों की आंखों को भी भर देते हैं। इस फिल्म का यह सबसे खूबसूरत शॉट है, जिसमें मास्साब खुद अपने आंसू नहीं रोक पाते। भैंस चराने वाला बच्चा, जो गवंई अंदाज में संवाद बोलता है, और दर्शकों को गुदगुदा जाता है।
पूरी फिल्म का सार मास्साब फिल्म के एक संवाद में समाहित है, “अच्छे परिवर्तन का विरोध करने वाली मानसिकता ही दोषी इस घटना की दोषी है।” यही अच्छा परिवर्तन लाने के लिए मास्साब पापड़ बेल रहे हैं और गांव की सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी और गांव की प्रधान उषा देवी (शीतल सिंह) कदम-कदम पर उसका साथ देती है। युवा उषा और आशीष के बीच एक कोमल तंतु भी है, जो फिल्म की गति को कहीं भी कम नहीं करती।
देश-विदेश के कई फिल्म फेस्टिवल्स में अवॉर्ड जीत चुकी मास्साब आशा जगाती है कि कोशिश कभी बेकार नहीं होती। यह उस शेर को भी चरितार्थ करती है कि वाकई यदि तबियत से पत्थर उछाला जाए, तो आसमान में सुराख होना भी मुमकिन है
फिल्म की कहानी बुंदेलखंड के एक गांव में चलती है, जहां एक नए मास्टर प्रायमरी स्कूल में आए हैं। पढ़ाने का जुनून ऐसा, कि ‘कलेक्टरी’ छोड़ कर टीचर बने। निर्देशक (आदित्य ओम) ने बहुत खूब खूबसूरती से, बच्चों के मनोभाव पकड़े हैं। गांव की लोकेशन को बहुत विश्वसनीय ढंग से परदे पर उतारा है। निर्देशक ने कुशलता से फिल्म को डॉक्यूमेंट्री होने से बचाया है। क्योंकि सिनेमा में किसी सामाजिक विषय को उठाने में यह खतरा हमेशा बना रहता है। प्रायमरी शिक्षा ऐसा विषय है, जिस पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है और यही विषय सिनेमा से दूर रहा है। बच्चों ने बहुत सधा हुआ अभिनय किया है। वे किसी कुशल अभिनेता की तरह सहज रहे हैं। फिल्म में घटना-दर-घटना इस विषय के हर पहलू से परिचित कराती चलती है।
हकलाने वाली बच्ची रमा देवी (कृतिका सिंह) का वाद-विवाद में आत्मविश्वास के बोलना, दर्शकों की आंखों को भी भर देते हैं। इस फिल्म का यह सबसे खूबसूरत शॉट है, जिसमें मास्साब खुद अपने आंसू नहीं रोक पाते। भैंस चराने वाला बच्चा, जो गवंई अंदाज में संवाद बोलता है, और दर्शकों को गुदगुदा जाता है।
पूरी फिल्म का सार मास्साब फिल्म के एक संवाद में समाहित है, “अच्छे परिवर्तन का विरोध करने वाली मानसिकता ही दोषी इस घटना की दोषी है।” यही अच्छा परिवर्तन लाने के लिए मास्साब पापड़ बेल रहे हैं और गांव की सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी और गांव की प्रधान उषा देवी (शीतल सिंह) कदम-कदम पर उसका साथ देती है। युवा उषा और आशीष के बीच एक कोमल तंतु भी है, जो फिल्म की गति को कहीं भी कम नहीं करती।
देश-विदेश के कई फिल्म फेस्टिवल्स में अवॉर्ड जीत चुकी मास्साब आशा जगाती है कि कोशिश कभी बेकार नहीं होती। यह उस शेर को भी चरितार्थ करती है कि वाकई यदि तबियत से पत्थर उछाला जाए, तो आसमान में सुराख होना भी मुमकिन है