धीरे-धीरे वह दिन करीब आता लगता है, जब सरकारी-अर्द्धसरकारी स्कूलों के अध्यापकों को बच्चों को पढ़ाने के अलावा बाकी सारे काम करने होंगे।
हाल ही में वाल्मीकि जयंती पर प्रदेश के कासगंज में अध्यापकों को वाल्मीकि रामायण पाठ के लिए संकटमोचन धाम जाने को कहा गया। रामायण पढ़ने के लिए हर अध्यापक की चार-चार घंटे ड्यूटी लगाई गई। आदेश जिले के मुख्य विकास अधिकारी का था। बाद में उन्होंने सफाई दी कि चूंकि अध्यापक रामायण पढ़ने में सक्षम में हैं, इसलिए भेजा गया, लेकिन यह वैकल्पिक था। गोया, रामायण पाठ के लिए शिक्षकों की योग्यता उनकी नियुक्ति के मापदंडों में शामिल रही हो!
फिरोजाबाद में और भी हास्यास्पद, बल्कि अपमानजनक आदेश जारी हुआ। वहां अध्यापकों से कहा गया कि स्कूल परिसरों से पॉलीथिन बीनकर न्याय पंचायत भवन में जमा करें। पॉलीथिन बीनना अच्छा कदम हो सकता है, लेकिन इस काम में अध्यापक ही क्यों लगाए जाएं? विभिन्न अध्यापक संघों ने ऐसे ‘फालतू’ कामों में अध्यापकों को लगाए जाने का विरोध किया और बेसिक शिक्षा मंत्री से शिकायत भी की।
बरसों से सरकारी अध्यापक जिला प्रशासन के हाथ का खिलौना बने हैं। जनगणना, मतदाता सूचियों और आपदा राहत से संबद्ध कई कामों में उन्हें लगाया जाता रहा है। धीरे-धीरे सरकारों की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं और विविध सर्वेक्षणों में भी लगाया जाने लगा। लाभान्वितों के सत्यापन, कागजी या कम्प्यूटर से जुड़े कामों के अलावा हाल के वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों की ढेरों ‘नकद नारायण’ योजनाओं में उनकी व्यस्तता होने लगी है। ‘डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर’ यानी लाभार्थियों के खातों में सीधे धन पहुंचाने वाली योजनाओं की डेटा-फीडिंग अध्यापकों के हिस्से आ गई। स्कूलों से जुड़े गैर-अध्यापकी काम तो उनके जिम्मे थी ही।
जिला प्रशासन के अदने अधिकारी भी छोटे-छोटे कामों के लिए अध्यापकों को तलब कर लेते हैं। वाल्मीकि रामायण पाठ या पॉलीथिन बीनने के आदेश इसी प्रवृत्ति के कारण जारी हुए। सिर्फ स्थानीय प्रशासन ही ऐसा नहीं करते, सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों में भी सरकार की ओर से अध्यापकों के लिए तरह-तरह के आदेश आते रहते हैं। 2014-15 में राष्ट्रीय शैक्षणिक नियोजन एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि देशभर में 224 शैक्षिक दिवसों में सत्रह दिन अध्यापकों को दूसरे कामों में लगाया जाता है। शिक्षक संघों का कहना है कि यह संख्या वास्तव में कहीं अधिक है।
कुछ वर्ष पहले सीबीएसई बोर्ड ने संबद्ध स्कूलों को एक परिपत्र भेजकर निर्देश दिया था कि परीक्षा, मूल्यांकन, शैक्षिक प्रशिक्षण आदि के अलावा किसी भी अध्यापक को दूसरे कामों न लगाया जाए, यह सुनिश्चित करें। इस निर्देश का पालन शायद ही हो रहा है। बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए 2009 में बने कानून की धारा 27 कहती है कि दस साल में एक बार होने वाली जनगणना, आपदा राहत और निर्वाचन से जुड़े कार्यों को छोड़कर अन्य कार्य अध्यापकों से न लिए जाएं। नई बात नहीं कि हमारी सरकारें अपने ही बनाए कानूनों को तोड़ा करती हैं।
बहुतेरे शिक्षक भी पढ़ाना छोड़कर दूसरे कामों में अधिक रुचि लेते हैं। प्रशासनिक कार्यों के बहाने स्कूलों से नदारद रहना या असमय आना-जाना चलता ही रहता है। बच्चों को अच्छी शिक्षा देने में समर्पित अध्यापकों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। ऐसे में अगर कक्षा पांच के बच्चे कक्षा दो का गणित नहीं कर पाते या पाठ नहीं पढ़ पाते, तो क्या आश्चर्य!
और, किसी सरकार या शिक्षा मंत्री के लिए यह चिंता का विषय भी नहीं।
✍️ नवीन जोशी