कोरांव प्रयागराज। निरीक्षण शब्द को बेसिक स्कूलों में अगर समझाया जाए तो यह किसी पुलिस दबिश का इनकम टैक्स रेट से कम नहीं होता देखा जाता है। हां थोड़ा स्वरूप जरूर अलग होता है। पर उपदेश दोनों का एक ही होता है। क्योंकि स्कूलों के निरीक्षण में शिवाजी की गुरिल्ला युद्ध नीति जैसी नीति अपनाते हैं। बड़े स्तर के निरीक्षण की तुलना में छोटे स्तर की निरीक्षक बहुत ही घातक देखी जाते हैं। छोटे स्तर के निरीक्षक स्कूल पहुंचते ही अभिलेख ई दस्तावेजों पर शिकारी की तरह झापटा मारते हैं इनका बस चले तो पूरा स्कूल सीज कर दी ना कोई अंदर जा सकता है नहीं बाहर। हां अगर उनके चेहरे की चमक पर गौर नहीं किया जाए तो इस स्कूल की कमियों की हिसाब से घटती बढ़ती रहती है। अगर कोई एक्सेंट मिला तो चेहरा खिल जाता है। और यदि सब प्रजेंट तो फिर खुदाई शुरू हो जाती है। यह औचक निरीक्षण सबको भौंचक करने वाला होता है। अखबार की खबरें समाज को बताना ही नहीं चाहती कि शिक्षक किन परिस्थितियों से जूझ रहे हैं।
ग्रामीण परिवेश में गरीबी की पहली प्राथमिकता शिक्षा नहीं शाम की रोटी होती है। मैं तो बताना ही नहीं कि शिक्षकों ने किस प्रकार ग्रामीण परिवेश में स्कूली शिक्षक के दम पर ही जातिवादी प्रथा को समाप्त किया। बालिका शिक्षा गड़बड़ी तो नहीं बेसिक स्कूलों के शिक्षकों की दम पर और अभिभावकों के विश्वास पर । पोलियो अगर हारा है तो इन्हीं शिक्षकों के परिश्रम से। इतनी जबरदस्त चौतरफा दुष्प्रभाव के बाद भी अगर परिषदीय स्कूल आज भी अस्तित्व में है तो वहीं शिक्षकों के दम पर है। कल्पना करके देखिए अगर किसी भी निजी स्कूल का थोड़ा भी दुष्प्रचार हुआ तो उन्हें बंद होने में साल 2 साल से ज्यादा समय नहीं लगता जो जिंदा हैं अपने प्रचार के दम पर और प्रसिद्धि शिक्षक इसके दुष्प्रभाव पर भी समाज को आगे ले जाने की कोशिश में लगे हुए हैं। फिर क्या औचित्य है औचक निरीक्षणों का जो मिर्ची कौन से छू के बीच में अविश्वास का और कटुता पैदा करें।