इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश में कहा है कि आरोपी को सम्मन जारी करने के लिए आरोपों की सत्यता का निर्धारण करना जरूरी नहीं है। कोर्ट ने कहा कि सम्मन आदेश को रद्द करने की शक्ति का प्रयोग संयम और सावधानी के साथ अपवाद स्वरूप किया जाना चाहिए। अदालत आरोपों की विश्वसनीयता या वास्तविकता के बारे में कोई जांच शुरू नहीं कर सकती। यह ट्रायल के दौरान प्रस्तुत सबूतों पर तय होगा। कोर्ट ने कहा कि अपराध का संज्ञान लेना विशेष रूप से मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र में आता है और इस स्तर पर मजिस्ट्रेट को मामले के गुण-दोष में जाने की आवश्यकता नहीं है। आरोपों की वास्तविकता या सत्यता का निर्धारण आरोपी को तलब करने के स्तर पर नहीं किया जा सकता है।
यह आदेश न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह ने मेरठ के पंकज त्यागी की याचिका को खारिज करते हुए दिया है। मामले के तथ्यों के अनुसार मेरठ के न्यायिक मजिस्ट्रेट तृतीय ने सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत पीड़िता की अर्जी पर दर्ज मुकदमे में दाखिल चार्जशीट पर याची को सम्मन जारी किया था। अर्जी में आरोप था कि 27 अगस्त 2014 को पीड़िता सो रही थी तो आरोपी उसके कमरे में घुसकर उसपर टूट पड़ा था और उसके साथ दुराचार का प्रयास किया था। पीड़िता के चीखने-चिल्लाने पर उसकी मां जाग गई और आरोपी को पकड़ लिया गया। हालांकि वह गाली-गलौज व मां से मारपीट कर फरार हो गया। उसने भागते हुए यह धमकी दी कि यदि पीड़िता ने यौन संबंध नहीं बनाया तो उस पर तेजाब से हमला कर देगा। न्यायिक मजिस्ट्रेट मेरठ ने थाना इंचार्ज को एफआईआर दर्ज कर विवेचना करने का निर्देश दिया। उसके बाद एफआईआर दर्ज कर ली गई। पुलिस की चार्जशीट पर सीजेएम मेरठ ने संज्ञान लिया और आरोपी को सम्मन जारी किया। जिसे याचिका में चुनौती दी गई थी।