Home PRIMARY KA MASTER NEWS नेताओं का अधिकारियों को अवैध आदेश देना खेदजनक: हाईकोर्ट

नेताओं का अधिकारियों को अवैध आदेश देना खेदजनक: हाईकोर्ट

by Manju Maurya

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश में कहा है कि राज्य के जनप्रतिनिधियों द्वारा सरकारी अधिकारियों को अवैध आदेश करने के लिए मजबूर करना खेदजनक स्थिति है और सरकारी अधिकारी भी बिना किसी आपत्ति के जनप्रतिनिधियों के गलत आदेशों का पालन करते हैं ’

यह आदेश न्यायमूर्ति सिद्धार्थ ने बस्ती के मदरसा दारुल उलूम अहले सुन्नत बदरुल उलूम में प्रधानाचार्य पद पर कार्यरत रहे बशारत उल्लाह की याचिका को स्वीकार करते हुए दिया है। कोर्ट ने याची को प्रधानाचार्य पद पर बहाल कर नियमित वेतन सहित छह सप्ताह में बकाया वेतन भुगतान करने का निर्देश दिया है। यह भी कहा कि भुगतान में देरी की गई तो नौ प्रतिशत ब्याज भी देना होगा और सरकार ब्याज की भरपाई जवाबदेह अधिकारी से वसूलने को स्वतंत्र होगी। मामले के तथ्यों के अनुसार याची को वर्ष 2019 में मदरसे में प्रधानाचार्य पद पर नियुक्त किया गया था। उसने नियुक्ति से पहले गोंडा के दारुल उलूम अहले सुन्नत मदरसे में सहायक अध्यापक के रूप में पांच वर्ष अध्यापन किया था।

इस अनुभव के आधार पर उसे प्रधानाचार्य पद पर नियुक्ति दी गई थी। 2020 में एक शिकायत के आधार पर जिला अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी ने उसके अनुभव प्रमाण पत्र की जांच भी की थी, जिसमें उसे क्लीन चिट दे दी गई। उसके बाद तत्कालीन विधायक संजय प्रताप जायसवाल एवं तत्कालीन श्रम एवं रोजगार मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य द्वारा मुख्यमंत्री को भेजे गए पत्र के आधार पर शासन के विशेष सचिव ने उसका अनुमोदन रद्द कर दिया था।

याची के अधिवक्ता ने कहा कि अनुमोदन रद्द करने से पूर्व याची को सुनवाई का अवसर भी नहीं दिया गया। राज्य सरकार के प्रति शपथपत्र में कहा गया कि विधायक संजय प्रताप जायसवाल एवं मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के पत्र के बाद हज समिति के सचिव ने याची की नियुक्ति की जांच की थी। एकपक्षीय जांच में याची की नियुक्ति अवैध पाई गई थी, जिसके बाद ही उसका अनुमोदन रद्द किया गया है। यह भी कहा गया कि याची को जांच के दौरान पक्ष रखने का पूरा अवसर दिया गया था।

कोर्ट ने सुनवाई के बाद कहा कि विशेष सचिव ने विधायक एवं मंत्री के पत्र के बाद ही प्रकरण का संज्ञान लिया था एवं हज समिति के सचिव की एकपक्षीय जांच के आधार पर याची की नियुक्ति के अनुमोदन को रद्द किया गया। विशेष सचिव का आदेश राज्य सरकार को भी नहीं भेजा गया है। इससे लगता है कि राज्य के जनप्रतिनिधि सरकारी अधिकारियों को अवैध आदेश करने के लिए मजबूर करते हैं और सरकारी अधिकारी भी बिना किसी आपत्ति के नेताओं के अवैध आदेशों का पालन करते हैं।

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