राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए रा ने हाल में पुणे के डा. अदनान अली को गिरफ्तार किया है। एमबीबीएस एमडी अदनान 16 वर्षों से चिकित्सा क्षेत्र में सक्रिय था। उसे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी और जर्मन भाषाओं का ज्ञान है। इतना उच्च शिक्षित होने के बावजूद वह आतंकी गतिविधियों में लिप्त था। वह खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट में नौजवानों की भर्ती कराने की कोशिश कर रहा था। समान्य धारणा यह है कि उच्च शिक्षित लोग संस्कारवान और अपराध से दूर रहते हैं। मानवता और राष्ट्र के प्रति संवेदनशील होते हैं, लेकिन वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। ऐसे मामले दर्शाते हैं कि शिक्षित होना संस्कारवान होने की गारंटी नहीं अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन से लेकर अल जवाहिरी और जैश- ए-मोहम्मद से जुड़ा अफजल गुरु भी उच्च शिक्षा प्राप्त था। खालिस्तान के कुछ पक्षधर भी उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। भारत की प्रशासनिक सेवाओं में कार्यरत अधिकारी भी उच्च शिक्षित होते हैं, लेकिन कई लोक सेवक गंभीर भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं। राष्ट्रजीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उच्च शिक्षित लोगों की ऐसी स्थिति देखने को मिलती है।
आधुनिक शिक्षा प्रामाणिक मनुष्य नहीं तैयार करती। जबकि मनुष्य को संस्कृति, राष्ट्र और मनुष्यता के प्रति निष्ठावान संस्कारों की आवश्यकता होती है। आदर्श नागरिक बनाने के लिए मनुष्य का प्रबोधन आवश्यक है। यह शिक्षा के माध्यम से होना चाहिए, किंतु स्थिति निराशाजनक है। वर्तमान शिक्षा आजीविका प्रबंधन और धन संपन्नता अर्जित करने का उपकरण मात्र बनी हुई है। प्रसिद्ध विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा है, ‘शिक्षा का मतलब कुछ परीक्षाएं पास कर लेना ही नहीं होता, बल्कि सभी समस्याओं पर विचार करने के योग्य बनना होता है। शिक्षा का तात्पर्य यही है कि आप स्वतंत्रतापूर्वक बेरोकटोक विकसित हो सकें।’ शिक्षा को संस्कृति के साथ जोड़ना जरूरी है। वस्तुतः, संस्कृति कुछ और नहीं, बल्कि उच्चतर जीवन मूल्यों के संवर्धन का ही नाम है। भारत के संविधान में इसे मूल कर्तव्यों के अंतर्गत ‘सामासिक संस्कृति’ कहा गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने ‘सामासिक संस्कृति’ के निर्वाचन में कहा है, इस सामासिक संस्कृति का आधार संस्कृत भाषा और साहित्य है, जो इस महान देश के भिन्न- भिन्न जनों को एक रखने वाला सूत्र है। इस देश के लोगों में अनेक भिन्नताएं हैं। वे गर्व करते हैं कि वे एक सामान्य विरासत के सहभागी हैं। वह विरासत संस्कृत की विरासत है।’
समकालीन शिक्षा में सांस्कृतिक प्रवाह नहीं है। नई शिक्षा नीति में यह कोशिश की गई है। पुरातन को अधुनातन बनाना होगा। अनुपयोगी कालबाह्य छोड़कर उपयोगी आधुनिकता गढ़ना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए, लेकिन विदेशी सत्ता के दौरान भारत के अतीत को अपमानित करने और इतिहास परंपरा के विरूपण का काम हुआ। दर्शन विज्ञान आधारित हिंदू संस्कृति को सांप्रदायिक कहा गया। शिक्षा प्रामाणिक नागरिक नहीं बना पाई। ब्रिटिश राज में प्रामाणिक मनुष्य की रचना का काम बाधित हुआ। शिक्षा का उद्देश्य ब्रिटिश सत्ता के आज्ञाकारी अधिकारी-कर्मचारी तैयार करना हो गया। स्वतंत्र भारत में भी अंग्रेजी राज वाली शिक्षा प्रणाली चलती रही। ऐसी शिक्षा से राष्ट्र को खास लाभ नहीं हुआ। इस शिक्षा ने समाज के प्रत्येक शिक्षार्थी को प्रतिस्पर्धी बनाया। प्रतिस्पर्धा समाज अपने स्वार्थ में सही गलत सब कुछ करने को तैयार रहते हैं। पढ़े-लिखे युवा भी आतंकी संगठनों का कच्चा माल बनते हैं। भ्रष्ट बनते हैं। अपराधी भी बनते हैं। गांधीजी ऐसी शिक्षा से चिंतित थे। गांधीजी ने इस संदर्भ में लिखा, ‘अब ऊंची शिक्षा को लें। मैंने भूगोल सीखा। खगौल सीखा। बीजगणित रेखागणित का ज्ञान भी हासिल किया, भूगर्भ विद्या को भी पा गया, लेकिन उससे मैंने अपने आसपास के लोगों का क्या भला किया? अगर यही सच्ची शिक्षा हो तो मैं कसम खाकर कहूंगा कि जो शास्त्र मैंने गिनाए हैं, उनका उपयोग मुझे नहीं करना पड़ा। ऐसी शिक्षा से हम मनुष्य नहीं बनते। उससे हम अपना कर्तव्य नहीं जान सकते।’
भारत में प्राचीनकाल से ही शिक्षा का उद्देश्य मुक्त चिंतन आधारित संस्कार देना एवं लोकमंगल की भावना विकसित करना था और प्रामाणिक मनुष्य बनाना भी विषयों का ज्ञान व्यक्ति के चित्त का रूपांतरण नहीं करता। छांदोग्य उपनिषद के अनुसार ऋषि नारद उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान सनत कुमार के पास पहुँचे और कहा कि, मैं बहुत अशांत और उद्विग्न हूं। हमारा मार्गदर्शन करें।’ सनत कुमार पूछा, ‘तुमने क्या-क्या पढ़ा है? नारद ने कहा, मैंने वेद पढ़े हैं, व्याकरण पढ़ा है, इतिहास पढ़ा है, निरुक्त पदा है, भूगर्भ विद्या, खगोल विद्या भी पढ़ी है। विज्ञान पढ़ा है। समाज विज्ञान पढ़ा है। ऐसे तमाम विद्याओं को पढ़कर भी नारद अशांत थे। सनत कुमार ने कहा, ‘ये सारी विद्याएं नाम और संज्ञा हैं। वाणी इनसे बड़ी है। वाणी से बल बड़ा है। आशा उससे बड़ी है, लेकिन ये सब अल्प और अपूर्ण हैं। संस्कृतिक संपूर्णता के ज्ञान से सुख मिलता है।”
“शिक्षित व्यक्ति को सृजनशील होना चाहिए और संवेदनशील भी, मगर आज की शिक्षा व्यक्ति को संवेदनशील और रचनात्मक नहीं बनाती अस्तित्व के प्रति आस्तिक भी नहीं बनाती। भविष्य के प्रति आशा भी नहीं जगाती। आशा असल में अस्तित्व और भविष्य पर सकारात्मक विश्वास का नाम है आशा रहित लोग अनुचित साधन से शीघ्र परिणाम चाहते हैं। उनका अंतःकरण गलत काम रोकने के निर्देश नहीं देता। शिक्षित अपराधियों की सफलता गलत काम की प्रेरणा देतो है। भारतीय ज्ञान परंपरा में गलत कार्य को पाप और लोकमंगलकारी कार्यों को पुण्य कहते हैं। यहां पुण्य कर्म शुभ फल दाता हैं और पाप कर्म दंडनीय अच्छी बात है कि आजादी के 75 वर्ष बाद केंद्र सरकार ने भारतीय ज्ञान परंपरा को महत्व दिया है। शिक्षकों से अपेक्षा की गई हैं कि वे अध्यापन में भारतीय ज्ञान से संबंधित उदाहरण दें। उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों का आतंक जैसे जघन्य अपराधों से जुड़ना गंभीर चिंता का विषय है। अदनान सहित तमाम उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों का आतंक में लिप्त होना विश्व चिंता का विषय है। (लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष है।