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मुक्त होती स्कूली शिक्षा

by Manju Maurya

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क में प्रस्तावित बदलाव नए नहीं हैं। डेनमार्क, फिलीपीन और यहां तक कि भारत में भी ओपन स्कूल में ये विशेषताएं मिल जाती हैं। लेकिन औपचारिक स्कूलों में इनकी शुरुआत निश्चित रूप से स्वागत योग्य है, जो बेहतर शिक्षित नागरिक तैयार करेगी।

शि क्षा का काम व्यक्ति को मुक्त करना है, लेकिन अगर वह खुद ही बेड़ियों में बंधी होगी, तो यह काम कैसे कर सकेगी? राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क 2023 में प्रस्तावित बदलाव स्कूली शिक्षा के स्वरूप और उसके द्वारा विद्यार्थियों के शैक्षिक विकास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण, रचनात्मक, सुविचारित और सकारात्मक हैं। ये स्कूली शिक्षा को मुक्त बनाते हैं और विद्यार्थियों को अपनी पसंद से सीखने, अपनी रुचियों का विकास करने, व्यावसायिक कौशल विकसित करने और अपनी इच्छा के अनुसार परीक्षाएं देने की स्वतंत्रता देते हैं।

प्रो. राजेश कुमार

एनआईओएस के पूर्व निदेशक

इसमें पहला सबसे महत्वपूर्ण बदलाव सीखने के कौशलों पर बल परीक्षा पास कर लेते हैं। नए फ्रेमवर्क के कौशल, ज्ञान को जीवन में लागू लिए अधिक उपयोगी नागरिक बन विकास, रचनात्मकता और नवाचार समस्या समाधान और तर्क क्षमता को भी स्थान दिया गया है। विद्यार्थियों को दृष्टि को स्थानीय से वैश्विक बनाने के लिए यह प्रावधान भी किया गया है कि समाज विज्ञान के विषयों के पाठ्यक्रमों में 20 फीसदी सामग्री स्थानीय स्तर की हो, 30-30 फीसदी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तरों की और 20 फीसदी सामग्री वैश्विक स्तर की हो पाठ्यक्रम में विभिन्न मूल्यों पर भी बल दिया गया है, जो न केवल अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि शिक्षा को उदात्त स्तर पर भी रखते हैं। इनमें लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान, पर्यावरण की रक्षा, गरिमा, विविधता को सराहना, जीवदया, समानता आदि शामिल हैं।

देना है। अब ऐसे विद्यार्थियों को

लाभ नहीं मिलेगा, जो केवल रटकर

में इस बात पर वल हैं कि विद्यार्थी

की न केवल ज्ञान में बढ़ोतरी हो,

बल्कि वह नया ज्ञान अर्जित करने

करने और सॉफ्ट स्किल्स व पेशेवर

कौशल अर्जित करके समाज के

सके। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के

पर बल, भाषिक क्षमताओं में वृद्धि,

अब पहले की तरह विज्ञान, कॉमर्स, और आर्ट्स के समूह नहीं होंगे, बल्कि विद्यार्थियों को अपनी रुचि के अनुसार विषय चुनने की छूट होगी। उदाहरण के लिए, यदि कोई विद्यार्थी विज्ञान के साथ इतिहास या संगीत सीखना चाहे, तो उसे इसकी छूट होगी। विद्यार्थियों को सीखने की आजादी देने व उन्हें कॅरिअर में फंसे रहने के बजाय, अपनी रुचियों को आगे बढ़ाने की सुविधा देने की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण बदलाव है। विषयों में कला क्षेत्र के साथ-साथ शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य भी शामिल हैं।

तीसरा महत्वपूर्ण बदलाव सोखने में भाषाओं और उनमें भी भारतीय भाषाओं पर बल देना है। अब नौवीं और दसवीं कक्षाओं में विद्यार्थियों को तीन भाषाएं सीखने का अवसर मिलेगा, जिनमें से कम-से-कम दो भाषाएँ भारतीय होना जरूरी हैं। ग्यारहवीं और बारहवी कक्षा में दो भाषाएं होंगी, जिनमें से कम-से-कम एक भाषा भारतीय होनी चाहिए। यह बदलाव कई दृष्टियों से क्रांतिकारी है। प्रथम, सभी प्रकार की शिक्षा के लिए भाषा का ज्ञान होना अनिवार्य है। दूसरे, शोध यह सिद्ध कर चुके हैं कि द्विभाषिकता विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास में सहायक होती है। तीसरे, इस प्रस्ताव में भारतीय भाषाओं पर बल देने से एक तो विद्यार्थियों को अपनी भाषाएं सीखने का अवसर मिलेगा, साथ ही भारत की अन्य भाषाओं को सीखने से उन्हें भारत से गहन परिचय प्राप्त करने में मदद मिलेगी। विद्यार्थी भारत को विविधता, इसकी समृद्ध संस्कृति, धरोहर, सामासिकता व मेल-मिलाप के गुण विकसित कर सकेगा। इससे न केवल उसका व्यक्तित्व अधिक भारतीय हो सकेगा, बल्कि भारतीय भाषाओं के विकास, परस्पर सहयोग और साहित्यिक आदान-प्रदान के मार्ग भी खुलेंगे।

तो यह बदलाव वैश्विक मानदंडों के अनुरूप है और दूसरे विषयों के चयन में स्वतंत्रता देने के कारण यह संभवतः बोझ नहीं रहेगा, बल्कि विद्यार्थियों के चहुमुखी विकास में योगदान करेगा। इसके साथ ही स्कूली शिक्षा अब पांच के बजाय तीन साल से ही शुरू हो जाएगी, और यह 15 वर्षों की होगी, जो अभी 11 वर्षों की होती है। दरअसल, इसमें एक साल की बढ़ोतरी ही हुई है, क्योंकि अभी शिक्षा पांच साल से शुरू होती है। इसका लाभ इस बदलाव में देखा जा रहा है कि अब माता-पिता को अपने बच्चों की शिक्षा के लिए प्रिपरेटरी स्कूलों की तलाश में ही भटकना होगा, और विद्यार्थियों को अब शुरू से ही अपनी शिक्षा में तारतम्यता दिखाई देगी। इससे कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह उगने वाले प्रिपरेटरी स्कूलों की लूट पर भी लगाम लगेगी। सभी बदलावों में से सबसे महत्वपूर्ण बदलाव साल में दो बार परीक्षाएं आयोजित करने का है। इन दो परीक्षाओं के अलावा विद्यार्थियों को परीक्षा देने की छूट दी जा सकती है। यह बदलाव भी विद्यार्थियों को स्वतंत्रता देने की दृष्टि से बड़ा कदम होगा। अब परीक्षा विद्यार्थियों के लिए होवा नहीं बनी रहेगी, क्योंकि विद्यार्थी अपनी इच्छा से परीक्षा के विषय और समय चुन सकेगा। अगर विद्यार्थी परीक्षा के लिए तैयार है, तो उसे अनावश्यक रूप से प्रतीक्षा करवाने का कोई अर्थ नहीं होता। ओपन स्कूल में तो इसे ऑन डिमांड परीक्षा की तरह शामिल किया जाता है। अब विद्यार्थी चुन सकेंगे कि उन्हें कितने विषयों में और किस परीक्षा में बैठना है। इससे उनका पढ़ने का बोझ भी कम होगा, क्योंकि जिन विषयों को वे उत्तीर्ण कर लेंगे, उन्हें उनमें आगे तैयारी करने की जरूरत नहीं होगी। इसके अलावा, अगर वे अपने परिणामों से संतुष्ट नहीं हैं, तो वे उन विषयों में फिर से परीक्षा देने के लिए स्वतंत्र होंगे। इतना ही नहीं, अगर बाद की परीक्षा में उनके अंक किसी वजह से कम हो जाते हैं, तो वे अपने पहले के अंक रख सकेंगे। इन परीक्षाओं को सार्थक बनाने के लिए फ्रेमवर्क में सेमेस्टर पद्धति शुरू किए जाने का भी प्रस्ताव है।

ध्यान देने की बात है कि स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में ये बातें नई नहीं हैं, है और डेनमार्क, फिलीपींस और यहां तक कि भारत में भी ओपन स्कूल में ये विशेषताएं मिल जाती हैं, लेकिन औपचारिक स्कूलों में इनकी शुरुआत निश्चित रूप से स्वागत योग्य है, जो बेहत्तर शिक्षित नागरिक तैयार करेगी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क में सुझाए गए प्रस्ताव देश में स्कूली शिक्षा का स्वरूप सकारात्मक रूप से बदल देंगे। इससे स्कूली शिक्षा न केवल अंतरराष्ट्रीय स्तरों के समकक्ष होगी, बल्कि विद्यार्थियों को शिक्षा के बेहतर और रुचिकर अनुभव मिलेंगे, और वे जरूरी कौशल अर्जित करके अपने आगे के जीवन के लिए बेहतर ढंग से

यह अवश्य है कि पहले की तुलना में विद्यार्थियों को अब एक विषय अधिक

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