Home PRIMARY KA MASTER NEWS Shikshamitra news : इंसाफ कब? शिक्षामित्रों को 10 हजार में घर चलाना हो रहा मुश्किल

Shikshamitra news : इंसाफ कब? शिक्षामित्रों को 10 हजार में घर चलाना हो रहा मुश्किल

by Manju Maurya

इंसाफ कब मिलेगा ? आजाद भारत का गुलाम शिक्षामित्र

दो दशक से भी ज्यादा वक्त से प्राथमिक शिक्षा के लौ को घोर अनियमितताओं के अंधेरों में भी रौशन रखने वाली गाँव गरीब दलित किसान बेटा / बेटी की यह जमात रातों-रात सरकार के रहमो करम पर छोड़ दी गई. या यूं कहें कि बेरोजगार हो गई माननीय उच्चतम न्यायालय के फैसले ने 25 जुलाई 2017 छुट्टी की रात न जाने कितने घरों के चूल्हों को आग से महरूम कर दिया. न जाने कितने बच्चों को अनाथ कर दिया किसी की फीस अधर में लटक गई थी, तो किसी के बेटी की डोली पर ग्रहण लग गया. अम्मा बाबू का इलाज शहर में कराने का सपना भी छप्पर से टपकते पानी की बूंदों की तरह धीरे-धीरे क्षीण हो गया नई नवेली दुल्हन के सपने चकनाचूर हो गये!

वाह रे कानून! एक झटके में सब खत्म कर दिया, और मुआ जमाना कहता है कि आजकल कानून की कोई हैसियत नहीं, जबकी दूषित राजनीति के चलते सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भूचाल ला दिया !

जी हाँ हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग में दो दशक पूर्व से बेहतर सेवा दे रहे शिक्षा मित्रों की क्योंकि प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग में शिक्षा मित्रों के बगैर शिक्षा की बात पूरी नही हो सकती, प्रदेश के जिन शिक्षा मित्रों के कन्धो पर नौनिहालों का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी थी उन्ही शिक्षा मित्रों को निराशा के अंधेरे में रखा गया। शिक्षा मित्र केन्द्र / प्रदेश सरकार, सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट के आदेश अनुशंसा और निर्णयों के बीच असमंजस और दुविधा के अनिश्चित माहौल में है जिससे शिक्षा मित्र और उनके आश्रित तीन पीढियों कराह रही हैं।

दरअसल यह कुल दास्तान सत्ता के उस अधिनायकवादी चरित्र का प्राकट्य है जो समाज के निर्धन, मुफलिस, जरूरतमंद और मोहताज किसान मजदूरों की जमात की बेबसी को अपने पूंजीवादी मंसूबों की पूर्ति के लिए अवसर मान कर उपयोग करती है. चाहे उसकी बुनियाद में हजारों लाखों किसान-मजदूर परिवारों के सपने, ख्वाहिशें, अरमानों और खूबसूरत मुस्तकबिल की आरजुओं की लाश दफन हो जाए.

एक दर्द की अनोखी दास्तान है जो नासूर बन गई एक उम्र का ऐसा पड़ाव आया पढ़ लिख कर हर कक्षा में अव्वल आने वाला नवयुवक ना जाने कैसे शिक्षा मित्र बन जाता है. यहीं से होती है शुरुआत उसकी जिन्दगी भर तड़पने और घुट घुट कर जीने की वह इस नौकरी के सहारे बहुत सारे सपने तो देख चुका था पर न तो अपना अच्छा भविष्य कर पाया न अच्छा बाप बन पाया न अच्छा पुत्र बन पाया न अच्छा पति या पत्नी बन पाया, खैर साल दर साल बीतते गये सभी सरकारे हमदर्दी जताती रहीं पर नैया पार लगाने कोई नहीं आया।

अपने बच्चों को टाफी दिलाने के लिए कई बार अपना जेब टटोलता है, बीमारी में दवा लेने के लिए कभी आसमान तो कभी धरती को देखता है किसी रिस्तेदारी में जाने के लिए खुद को गिरवी रखता है क्योंकि अपने जीवन का गोल्डन पीरियड प्राथमिक शिक्षा को दे चुका है अब वह इस मुकाम पर है कि एक तरफ खाई है एक तरफ कुआं है यानि मौत दोनों तरफ है लेकिन उससे कहीं ज्यादा दर्दनाक महंगाई की मार है जो तिल-तिल मार रही है इसी के चलते न अपने बीबी, बच्चे, माँ-बाप को अच्छे कपड़े पहना पाया न कभी उनके सपनो को पूरा कर पाया, कुछ पल के लिए आया था जिन्दगी में बसंत पर न जाने किसकी नजर लग गई कि फिर जिन्दगी को खत्म करने लगा शिक्षा मित्र, कोई रेल के आगे कोई इलाज के आभाव में बीमारी से कोई फांसी से. कोई हार्ट अटैक से इस दुनिया को अलविदा कहता रहा आज 8000 से भी ज्यादा शिक्षा मित्र अवसाद से मौत को गले लगा चुके हैं किंतु सरकार के किसी भी जिम्मेदार ने असमय हो रही इन मौतों की नैतिक जिम्मेदारी लेना उचित नही समझा।

आज एक मायूसी के साथ स्कूल में जाता है कि काश कहीं से कोई अच्छी खबर मिल जाये और मेरा भविष्य बदल जाये बस इसी उम्मीद में स्नातक / परास्नातक, दूरस्थ बीटीसी, टेट पास शिक्षा मित्र अपने सपनों के साथ साथ अपने परिवार का गला घोंट कर अकेले किसी कोने में खुद ही हंसता है तो कभी रोता है. दर्द होता है कि उसी स्कूल में एक ही छत के नीचे समान योग्यता या शिक्षा मित्रों से भी कम योग्यता वाले एक शिक्षक को 70 से 80 हजार दिये जाते हैं जबकी योग्यता के साथ साथ सुबह स्कूल खोलकर घंटी बजाने, झाडू लगाने, टाट बिछाने से लेकर हाडतोड़ मेहनत कर अपने गाँव घर के बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षा मित्रों को मात्र दस हजार वो भी केवल 11 माह का क्यों?

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