हमारी शिक्षा व्यवस्था को फेल करती परीक्षाएं
रूस के महान क्रांतिकारी व भूगोलविद पीटर क्रोपोटकिन ने 19वीं सदी के अंत या शायद 20वीं सदी की शुरुआत में एक छोेटी सी पुस्तिका उन नौजवानों के लिए लिखी थी, जो अपनी स्कूली पढ़ाई खत्म करने के बाद कोई करियर अपनाना चाहते हैं। भारत में इसका हिंदी अनुवाद नवयुवकों से दो बातें शीर्षक से छपा था। क्रोपोटकिन इसमें बताते हैं कि जो डॉक्टर बनना चाहते हैं, उनकी सोच क्या होनी चाहिए और जो इंजीनियर-प्रोफेसर वगैरह बनना चाहते हैं, उनका जज्बा कैसा होना चाहिए?
क्रोपोटकिन यह मानकर चल रहे थे कि जो बच्चे स्कूली शिक्षा पूरी कर चुके हैं, उन्होंने बहुत कुछ सीख-जान लिया होगा, इसके बाद असल सवाल उनकी सोच व जज्बे का ही बच जाता है। इससे ही अच्छे प्रोफेशनल तैयार हो सकते हैं, बाकी का ज्ञान तो वे जिस संस्थान में जाएंगे, वहां उनको मिल ही जाएगा। करियर अपनाने के लिए नीट, जेईई, नेट जैसी परीक्षाओं वाले हमारे समाज में सोच और जज्बा ही वे दो चीजें हैं, जिनको अब कोई नहीं पूछता। अक्सर कहा जाता रहा है कि भारत में शिक्षा व्यवस्था तो दरअसल है ही नहीं। बस एक परीक्षा व्यवस्था है। इसे जो पास कर लेता है, वह योग्य व विद्वान मान लिया जाता है। कुछ पढ़ा-नहीं पढ़ा, कुछ सीखा-नहीं सीखा इससे ज्यादा मतलब नहीं रह जाता। ज्ञान की असल कसौटी प्रश्न-पत्र में छपे कुछ सवाल हैं। किसी भी जुगत से उनको हल करने वाला हर बाधा को पार कर जाता है। क्या जाना, क्या समझा, क्या गुना, क्या सीखा इसके आगे ये सब निरर्थक हैं। यही वजह है कि बच्चा परीक्षा पास कर ले, इसके लिए अभिभावक कोई भी रकम चुकाने को तैयार हो जाते हैं। यहां तक कि परिवार के लोग, दोस्त-रिश्तेदार तो इसके लिए जान की बाजी तक लगाने को तैयार रहते हैं।
पूरी पीढ़ी के अच्छे भविष्य की बाधा जब परीक्षा ही है, तो व्यवसाय के इस युग में इसे पार कराने के बहुत से कारोबार भी शुरू हो गए हैं। कोचिंग है, टॺूशन है, गाइड बुक हैं और अब तो ऑनलाइन व्यवस्थाएं भी हैं। बाकी कई कारोबार की तरह इस सारे कारोबार की निचले तल पर एक स्याह दुनिया भी है, जहां नियमित रूप से पेपर लीक होते हैं। कीमत दीजिए, प्रश्न-पत्र परीक्षा से पहले ही हासिल कर लीजिए। फिर भी अगर दिक्कत है, तो सॉल्वर गैंग है, वह आप तक प्रश्नों के जवाब भी पहुंचा देगा। यहां तक कि मोटी रकम लेकर आपकी जगह परीक्षा देने वाले भी मिल जाएंगे।
चंद साल पहले आईआईटी के कुछ विद्वान प्रोफेसरों ने कोचिंंग संस्थानों को लेकर काफी कुछ कहा-लिखा था। उनके शब्दों में ये कोचिंग दरअसल ऐसे कारखाने हैं, जो आईआईटी प्रवेश परीक्षा पास करने योग्य नौजवान तैयार करते हैं। उनका कहना था कि हमें प्रतिभाशाली नौजवान चाहिए, कारखानों में तैयार युवक-युवतियां नहीं। मगर वे प्रोफेसर भी कोई समाधान नहीं दे सके। उन परीक्षाओं का विकल्प उनके पास भी नहीं था, जिनके लिए देश भर में हजारों कोचिंग कारोबार ही नहीं चल रहे, बल्कि एक ऐसा तंत्र भी बन गया है, जिसे कोचिंंग माफिया कहा जाता है। इन प्रोफेसरों ने एक और बात कही थी, जो महत्वपूर्ण है। उनका कहना था कि स्कूली शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि उसके बाद कोचिंग की जरूरत न पड़े। मगर एक दूसरा सच यह भी है कि हमारे स्कूल भी बहुत हद तक कोचिंंग संस्थानों सा काम करते हैं। उनका लक्ष्य भी बच्चों को परीक्षा पास कराना भर होता है।
इन दिनों लगभग हर दूसरी या तीसरी परीक्षा के पर्चे लीक हो रहे हैं और उनमें से कई को मजबूरीवश रद्द भी करना पड़ रहा है। नीट और नेट के मामले में जो सीबीआई की जांच चल रही हैं, उम्मीद है कि वे अंजाम तक पहुंचेंगी और दोषियों को सजा भी मिलेगी। मगर शायद समस्या इससे खत्म नहीं होगी। अगर ऐसा होता, तो हम न जाने कब अपराधमुक्त समाज बन चुके होते। वैसे भी शिक्षा की समस्याएं किसी फौजदारी से हल होने वाली चीज नहीं हैं। इसके लिए लंबे विमर्श की जरूरत है। जब तक तीन घंटे में प्रश्न-पत्र को हल करने की व्यवस्था बौद्धिकता व योग्यता का पैमाना बनी रहेंगी, इससे जुड़ी समस्याएं बढ़ती रहेंगी। इसलिए विकल्प खोजते समय उस सोच व जज्बे की जरूरत का भी ध्यान रखना होगा, जिसकी बात पीटर क्रोपोटकिन ने की थी।