▪️अभिव्यक्ति इस मानव देह की प्राथमिक विशेषता है। मनुष्य जन्म के साथ ही बोलना प्रारम्भ कर देता है। मनुष्य ही नहीं इस सम्पूर्ण जगत के जितने भी जीव-जन्तु हैं सभी अपनी भाषा में संवाद और अभिव्यक्ति करते हैं। युगों-युगों के निरंतर अभ्यास से हम मनुष्य अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यम विकसित कर पाए हैं। हम किसी की नैसर्गिकता पर प्रतिबंध नहीं आरोपित कर सकते हैं।
▪️अभिव्यक्ति हुई तो वेदों की रचना हुई है, अभिव्यक्ति हुई तो पुराण लिखे गए, अभिव्यक्ति हुई तो उपनिषदों का सूत्रपात हुआ, अभिव्यक्ति हुई तो महाकाव्यों की सर्जना हुई। अभिव्यक्ति हुई तो स्वतंत्रता की आस जगी। अभिव्यक्ति हुई तो संविधान लिखा गया।अभिव्यक्ति हुई तो तमाम राजनीतिक, सामाजिक,आर्थिक शास्त्र अस्तित्व में आये। ये अभिव्यक्ति ही है जो हम मनुष्यों को विकास और प्रगति के इस स्तर पर लाकर खड़ा किया है।अभिव्यक्ति हुई तो सम्पूर्ण विश्व एक गाँव के रूप में परिवर्तित हुआ।
▪️ एक क्षण के लिए कल्पना कीजिये यदि अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाया गया होता तो न अध्यात्म आगे बढ़ता और न ही विज्ञान। अभिव्यक्ति के बिना हम मनुष्य न तो रह सकते हैं और न विकास की किसी परिपाटी को बढ़ा सकते हैं। हमारी संस्कृतियाँ, हमारी परम्पराएँ अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों से हमारी संततियों में संचारित होती हैं।
▪️ अभिव्यक्ति जीवों का नैसर्गिक गुण है। एक पशु का मुँह भी यदि हम आपने सामर्थ्य से बन्द करते हैं तो यह पाप और अधर्म है। अभिव्यक्ति पर अंकुश निरंकुशता की प्राथमिक विशेषता है। विश्व में जितनी भी तानाशाही शक्तियों का उदय हुआ उन्होंने सर्वप्रथम अभिव्यक्ति पर ही अंकुश स्थापित किया, उन्हें सदैव भय होता है कि अभिव्यक्ति होने देने से सामान्य जनमानस में विचारों का आदान-प्रदान होगा, विचारों का आदान-प्रदान होने से विरोध के सुर उठेंगे और इससे उनकी सत्ता उखड़ सकती है।
▪️निश्चित रूप से हमारे संविधान निर्माता दूरदर्शी थे। भविष्य में भारत की जनता पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध न स्थापित हो इसलिए उन्होंने अभिव्यक्ति को मौलिक अधिकार बनाया। अभिव्यक्ति को मौलिक अधिकार महज इसलिए नहीं बनाया गया कि अभिव्यक्ति की महत्ता थी अपितु इसलिए बनाया गया कि अभिव्यक्ति व्यक्ति और जीवों का मौलिक एवं प्राकृतिक गुण है। आप कल्पना कीजिये, कोई ऐसा द्वीप जहाँ किसी भी देश का विधि अस्तित्व में न हो तो क्या वहाँ रहने वाले निवासियों में अभिव्यक्ति के गुण नहीं होते हैं..? होते हैं,अनिवार्यतः होते हैं।
▪️अभिव्यक्ति से हम संवाद करते हैं। संवाद से विचारों का विनिमय होता है। विचारों के विनियम से हमारी योजनाएं निर्धारित होती हैं। अतः हम किसी पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं स्थापित कर सकते हैं कोई बोले न..!!
▪️ वर्तमान परिदृश्य में उपरोक्त लोकतान्त्रिक एवं नैसर्गिक अधिकार संकुचित हुआ है जिसके अनेकानेक कारण हो सकते हैं।यहाँ मैं किसी सरकार की आलोचना नहीं कर रहा हूँ, मैं किसी दल का समर्थक नहीं हूँ। एक राज्य कर्मचारी होने के नाते किसी भी दल का समर्थन या विरोध हम कर्मचारियों द्वारा किसी भी सामाजिक पटल पर नहीं किया जा सकता है किन्तु कर्मचारी होने के पूर्व नागरिक होने के नाते मौलिक अधिकार हमारे लिए भी उतने ही प्रभावी हैं जितने सामान्य नागरिक के लिए हैं।
▪️मौलिक अधिकारों की महत्ता भारतीय संविधान के प्रस्तावना के उस हिस्से से समझा जा सकता है जिसमें लिखा हुआ है ''हम भारत के लोग''। 'हम भारत के लोग' का प्रत्यक्ष अर्थ यही है कि भारतीय संविधान के प्रत्येक प्रावधान का प्रभाव प्रत्येक नागरिक के लिए समान होगा।
▪️कोई भी आदेश, कोई भी क़ानून भारतीय संविधान से शीर्ष नहीं हो सकता है। भारतीय संविधान प्रत्येक आयाम पर श्रेष्ठ है। यदि भारतभूमि में शासन कर रही किसी भी सरकार द्वारा कोई ऐसा आदेश दिया जाता है अथवा लागू किया जाता है जिससे भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार अतिक्रमित हो रहे हों तो उसको भारतीय संविधान के उन्हीं प्रावधानों के आलोक में परखा जाएगा जिसमें मौलिक अधिकारों की संरक्षा का उपाय प्रबंधित किया गया है। भारतीय न्यायपालिका के विभिन्न चरण हमारे संरक्षक हैं। न्यायापालिका को भारतीय संविधान का संरक्षक कहा जाता है।
▪️यहाँ मैं किसी दल अथवा किसी सरकार द्वारा निर्गत किसी आदेश की चर्चा कदापि नहीं करना चाहूंगा किन्तु इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि जनता पर अंकुश स्थापित करने वाले प्रत्येक क़ानून असंवैधानिक हैं। उनका न्यायिक महत्व संविधान द्वारा परखा जाना चाहिए।
▪️प्रत्येक स्थिति में हमारे संवैधानिक एवं नैसर्गिक हितों की रक्षा की जानी चाहिये।
-'राजा' दिग्विजय सिंह
(उपरोक्त लेख स्वतंत्र भाव से लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की महत्ता के संदर्भ में लिखा गया है । लेख में किसी दल अथवा सरकार का विरोध नहीं किया गया है।)