सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि शौचालय सिर्फ जरूरी सुविधा ही नहीं है बल्कि मौलिक अधिकार भी है। शीर्ष अदालत ने देशभर के अदालत परिसरों और न्यायाधिकरणों में महिलाओं, दिव्यांगजनों और ट्रांसजेंडरों के लिए शौचालय व अन्य मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित करने के लिए दिशा-निर्देश जारी करते हुए यह टिप्पणी की।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की पीठ ने राजीब कलिता की ओर से 2023 में दाखिल जनहित याचिका पर विचार करते हुए यह दिशा-निर्देश जारी किया है। पीठ ने कहा कि हमारी राय में, शौचालय/ वाशरूम केवल सुविधा का मामला नहीं है, बल्कि एक बुनियादी आवश्यकता है जो मानवाधिकारों का भी एक पहलू है। इतना ही नहीं, पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत उचित स्वच्छता तक पहुंच को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है।
राज्य सरकारें धनराशि आवंटित करें : इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने 34 पन्नों के अपने फैसले में कहा कि सभी राज्य सरकारें और केंद्र शासित प्रदेश अदालत परिसर में शौचालय सुविधाओं के निर्माण, रखरखाव और सफाई के लिए पर्याप्त धनराशि आवंटित करेंगे और समय-समय पर समिति के परामर्श से इसकी समीक्षा की जाएगी।
चार माह में रिपोर्ट दाखिल करें हाईकोर्ट : सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों और उच्च न्यायालयों को चार माह में स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का आदेश दिया। पीठ ने फैसले की प्रति सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों और उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरलों को भेजने का आदेश दिया है ताकि इसका पालन हो सके।
हाईकोर्ट परिसरों में उचित व्यवस्था हो
शीर्ष अदालत ने आगे कहा कि इसलिए हाईकोर्ट परिसर में जजों, अधिवक्ताओं, वादियों और कर्मचारियों के लिए उचित शौचालय की सुविधा होनी चाहिए, जैसा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर जरूरी है। फैसले में कहा गया कि ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जहां जजों को भी, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, अभी भी उचित शौचालय की सुविधाएं नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह न्यायिक प्रणाली की प्रतिष्ठा को भी धूमिल करता है।
‘भ्रामक विज्ञापन दिखे तो कार्रवाई’
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को चेतावनी दी कि यदि वे भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रहे तो उनके विरुद्ध अवमानना कार्रवाई की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता शादान फरासत की ओर से प्रस्तुत नोट का अवलोकन किया और पाया कि कई राज्य संबंधित निर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं। फरासत इस मामले में शीर्ष अदालत की सहायता कर रहे हैं।
जस्टिस महादेवन ने अपने फैसले में कहा, संविधान के भाग-चार के तहत प्रत्येक राज्य/केंद्र शासित प्रदेश पर एक स्पष्ट कर्तव्य है कि वे एक स्वस्थ वातावरण तय करें व सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए प्रयास करें। पीठ ने कहा, बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच के बिना लंबे वक्त तक कोर्ट में बैठने के डर से वादियों को अपने कानूनी अधिकारों का प्रयोग करने से परहेज करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।