इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने एक अहम फैसले में कहा कि पितृत्व निर्धारण के लिए दुष्कर्म पीड़िता की सहमति के बिना बच्चे के डीएनए टेस्ट का आदेश नहीं दिया जा सकता है। कोर्ट ने इस नजीर के साथ पॉक्सो कोर्ट से दिए गए डीएनए टेस्ट के आदेश को रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा ने यह फैसला दुराचार पीड़िता की मां की ओर से दाखिल पुनरीक्षण याचिका पर दिया।
कोर्ट ने कहा है कि दुष्कर्म के मामले की सुनवाई के समय ट्रायल कोर्ट के समक्ष सवाल यह नहीं था कि आरोपी पीड़िता के बच्चे का पिता है अथवा नहीं, बल्कि उसे यह तय करना था कि आरोपी ने पीड़िता के साथ बलात्कार किया है अथवा नहीं। ट्रायल कोर्ट के समक्ष बच्चे के पितृत्व निर्धारण का सवाल नहीं था।
पीड़िता की मां ने वर्ष 2017 में सुल्तानपुर जिले के कोतवाली देहात थाने में एफआईआर दर्ज कराते हुए आरोप लगाया था कि आरोपी ने उसकी 14 वर्षीय बेटी का सात माह पूर्व बलात्कार किया था। इससे उसकी बेटी गर्भवती है। अभियुक्त के किशोर होने के कारण मामले का ट्रायल किशोर न्याय बोर्ड में शुरू हुआ। इस दौरान पीड़िता ने बच्चे को जन्म दिया। पीड़िता व उसकी मां की गवाही होने के बाद अभियुक्त की ओर से एक अर्जी देकर बच्चे के डीएनए टेस्ट की मांग की गई। इसे किशोर न्याय बोर्ड ने खारिज कर दिया।
बाद में आरोपी की ओर से पॉक्सो कोर्ट में अपील दाखिल की गई। 25 जून 2021 को पॉक्सो कोर्ट ने बच्चे के डीएनए टेस्ट का आदेश दे दिया। जिसे हाईकोर्ट ने खारिज करते हुए कहा कि पीड़िता की सहमति के बिना बच्चे के डीएनए टेस्ट का आदेश नहीं दिया जा सकता था। यह हो सकता है कि डीएनए टेस्ट से इनकार करना पीड़िता या अभियोजन के विरुद्ध जाए। फिर भी बिना सहमति के डीएनए टेस्ट का आदेश देना विधिसम्मत नहीं है। कोर्ट ने इस टिप्पणी के साथ याचिका मंजूर कर ली।