Home News यूपी का रण : मुद्दा……. चुनावी एजेंडे में शिक्षा-स्वास्थ्य क्यों नहीं, जरूर पढ़ें पूरी डिटेल

यूपी का रण : मुद्दा……. चुनावी एजेंडे में शिक्षा-स्वास्थ्य क्यों नहीं, जरूर पढ़ें पूरी डिटेल

by Manju Maurya

शिक्षा और स्वास्थ्य किसी भी समाज के विकास के बैरोमीटर हैं। जितनी अच्छी शिक्षा व्यवस्था होगी, उतना ही जागरूक समाज होगा। जितना जागरूक समाज होगा, उतना ही वह अपने स्वास्थ्य और परिवेश के लिए सतर्क होगा। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में राजनीतिक दलों के नेता स्वास्थ्य औैर शिक्षा को लेकर लंबी-लंबी तकरीरें तो करते हैं, लेकिन सत्ता में आते ही उनका फोकस बदल जाता है। मतदाता भी लुभावने नारों में फंस कर इन बुनियादी जरूरतों को दरकिनार कर देते हैैं। जिस शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए आम लोग अपने नेताओं से समय रहते सवाल-जवाब कर सकते हैं, उसे वे ही दोयम दर्जे का मुद्दा मान लेते हैं। राजनीतिक दलों के एजेंडे की बात करें तो यह सिर्फ घोषणापत्रों में ही शामिल रहते हैं, उसके बाद वे भी भूल जाते हैं।  

स्वास्थ्य… सेहतमंद सियासत की दरकार

प्रदेश में चिकित्सा क्षेत्र की आधारभूत सुविधाओं के विस्तार पर लगातार काम हो रहा है। नए मेडिकल कॉलेज खुल रहे हैं। अस्पतालों में सुविधाएं बढ़ रही हैं। डॉक्टरों की तैनाती भी हो रही है। पर, उतना ही सच यह भी है कि तात्कालिक तौर पर हर मरीज को राहत नहीं मिल पा रही है। सभी अस्पतालों में डायलिसिस, सीटी स्कैन की सुविधा के दावों की हकीकत यही है कि अभी 60 फीसदी में ही इसकी व्यवस्था हो पाई है। इन सबके बीच सबसे बड़ा मुद्दा मरीजों का अस्पताल में भर्ती नहीं हो पाना है।

रोजाना जिलों से रेफर होकर करीब 300 मरीज लखनऊ पहुंचते हैं। यहां ट्रॉमा सेंटर काम के बोझ की दुहाई देता है…आखिर तीमारदार मरीज को लेकर जाएं तो कहां जाएं? पॉलिसी बनाई गई कि रेफर करने से पहले उसकी वजह लिखना जरूरी होगा। इसके बावजूद कहीं संसाधन कम तो कहीं सर्जरी की सुविधा कम बताकर मरीजों को रेफर कर दिया जाता है। लखनऊ पहुंचने पर यहां के डॉक्टर यह कहकर टालते रहते हैं कि मरीज को हायर सेंटर भेजने की जरूरत ही नहीं थी। एक सच यह भी है कि सरकारी अस्पताल अब भी रेफरल सेंटर की भूमिका से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। इनमें आकस्मिक चिकित्सा व्यवस्था मजबूत नहीं हो सकी है। ऐसे में केजीएमयू और चिकित्सा संस्थानों पर मरीजों का दबाव बढ़ता जाता है।

स्टाफ की कमी का दर्द बरकरार 

प्रदेश में चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े संगठनों की प्रमुख मांग रिक्त पदों की भर्ती की भी है। प्रांतीय चिकित्सा सेवा संघ के महासचिव डॉ. अमित सिंह कहते हैं, शासन से डॉक्टरों के पद तो स्वीकृत हैं 18 हजार। पर, कार्यरत करीब 12 हजार ही हैं। हालांकि, संगठन पब्लिक हेल्थ नॉर्म्स के अनुसार विशेषज्ञ चिकित्सकों के 33 हजार और एमबीबीएस के 14 हजार पद करने की मांग कर रहा है।

नर्सिंग एसोसिएशन के प्रदेश महामंत्री अशोक कुमार बताते हैं, सिस्टर के 1469 पद  के सापेक्ष 910 और स्टाफ नर्स के 7866 पद के सापेक्ष 4507 ही कार्यरत हैं। सहायक नर्सिंग अधीक्षक के भी 17 पद खाली हैं। फार्मासिस्ट फेडरेशन के प्रदेश अध्यक्ष सुनील यादव का कहना है कि करीब 7500 पद में से एक हजार खाली हैं।

करोड़ों खर्च, पर नतीजा…?

झांसी, कन्नौज और आजमगढ़ में पैरामेडिकल कॉलेज खोलने पर करोड़ों रुपये खर्च हुए। लेकिन, लेक्चरर से लेकर प्रोफेसर तक की भर्ती नहीं हो सकी है।
–    वर्ष 2006 में झांसी में महारानी लक्ष्मीबाई राजकीय पैरामेडिकल ट्रेनिंग कॉलेज की शुरुआत हुई। करीब 400 करोड़ की लागत से बने इस कॉलेज में अभी तक डिग्री कोर्स शुरू नहीं हो सका है। संविदा शिक्षकों के सहारे डिप्लोमा कोर्स चल रहे हैं।
–   कन्नौज के ग्राम खसौली में पैरा मेडिकल कॉलेज के लिए वर्ष 2013 में तीन सौ करोड़ की लागत से भवन बना। पर, यहां भी हालत वैसे ही हैं। 
–   आजमगढ़ में भी वर्ष 2012 में पूर्वांचल में पैरा मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा हुई। भवन निर्माण के लिए 283.17 करोड़ रुपये जारी भी किए गए। 2015 में शिलान्यास भी हुआ। बाद में प्रोजेक्ट ठंडे बस्ते में चला गया।

डॉक्टरों की भर्ती पर दें ध्यान

प्रदेश के जिला अस्पतालों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का विकास तो किया गया, लेकिन डॉक्टरों की कमी पर किसी भी सरकार ने ध्यान नहीं दिया। जब तक डॉक्टर नहीं होंगे तब तक इलाज की व्यवस्था को मुकम्मल नहीं बनाया जा सकेगा। सीएचसी में ऑपरेशन थिएटर हैं। पर, कहीं सर्जन नहीं तो कहीं एनेस्थीसिया का डॉक्टर नहीं। एक्स-रे और अल्ट्रासाउंड मशीनें लगी हैं, पर रेडियोलॉजिस्ट नहीं है। सिर्फ टेक्नीशियन के भरोसे काम नहीं चलेगा। -डॉ. रविंद्र, पूर्व निदेशक (सीएचसी)

शिक्षा की गुणवत्ता सुधारनी होगी

वर्ष 1977 में चले होम्योपैथी के छात्रों के आंदोलन का हिस्सा रहा हूं। उस आंदोलन के बाद कुछ हद तक होम्योपैथी के मेडिकल कॉलेजों में सुधार हुआ था। पिछले दो दशक से किसी भी सरकार ने होम्योपैथी की शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। जब कॉलेज में पढ़ाई ही नहीं होगी तो वहां से निकलने वाले डॉक्टर कितने काबिल होंगे…? जब तक शिक्षा की गुणवत्ता और नई दवाओं पर काम नहीं होगा, इस पैथी का विकास नहीं हो सकता है।   -डॉ. जयराम राय, पूर्व रजिस्ट्रार, होम्योपैथिक मेडिसिन बोर्ड
 
आयुर्वेद में नए शोध की जरूरत

प्रदेश सरकार आयुर्वेद के उत्थान को लेकर लगातार काम कर रही है। चिकित्सालयों में सुधार हो रहा है। कॉलेजों में पीजी की सीटें बढ़ाई जा रही हैं। दवाओं की आपूर्ति भी बढ़ी है। नई-नई दवाएं आ रही हैं। कोविड काल में हर घर में आयुर्वेदिक दवाएं प्रयोग की गईं। आयुष मिशन आने के बाद हर स्तर पर तत्परता दिख रही है। अब आयुर्वेद चिकित्सकों को सर्जरी का भी अधिकार दे दिया गया है। सरकारी एवं निजी क्षेत्र में भी आयुर्वेदिक चिकित्सक लगातार आ रहे हैं।  -डॉ. विजय सेठ, आयुर्वेदाचार्य, विवेकानंद पॉली क्लीनिक

मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ी तो सुविधाएं भी
एसजीपीजीआई में लिवर प्रत्यारोपण, इमरजेंसी भवन, डायबिटिक रेटिना सेंटर शुरू होने जा रहा है। रोबोटिक सर्जरी तो शुरू भी हो गई है। अंगदान के लिए नियमावली भी तैयार की गई है। केजीएमयू में लिवर ट्रांसप्लांट शुरू हो गया है।
वर्ष 2017 से पहले 17 सरकारी मेडिकल कॉलेज, संस्थान और विश्वविद्यालय थे। अब 45 मेडिकल कॉलेज शुरू हो गए हैं। 14 का निर्माण चल रहा है, जबकि 16 पीपीपी मॉडल पर बनने हैं। 

आयोग का गठन नहीं हो सका

बेसिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग में शिक्षकों और कर्मचारियों की भर्ती के लिए उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा चयन आयोग के गठन की कार्यवाही 2017-18 से चल रही है। पर, अब तक आयोग का गठन नहीं हो सका है। आयोग के गठन के इंतजार में शिक्षकों और कर्मचारियों की भर्ती लंबे समय तक लंबित रहती है।
1.20 लाख भर्तियां फिर भी 90 हजार पद खाली
प्रदेश में पिछले पांच वर्षों में बेसिक शिक्षा विभाग में करीब 1 लाख 20 हजार सहायक अध्यापकों की भर्ती की गई है। इसके बावजूद विद्यालयों में सहायक अध्यापकों के 90 हजार से अधिक पद रिक्त हैं।

शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करना होगा
1.59 लाख में से एक लाख से ज्यादा परिषदीय विद्यालयों में प्रधानाध्यापक नहीं हैं।
50 हजार से अधिक स्कूलों में क्लासरूम, फर्नीचर, शौचालय, पेयजल, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। 10 हजार अंग्रेजी माध्यम विद्यालय खोल दिए गए, लेकिन इस माध्यम में पढ़ाने वाले योग्य और प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत परिषदीय विद्यालयों का वर्क प्लान लागू नहीं हो सका है।
माध्यमिक शिक्षा में भी रफ्तार धीमी
29,399 पद हैं माध्यमिक शिक्षा के राजकीय विद्यालयों में प्रधानाचार्य, प्रधानाध्यापक, प्रवक्ता और सहायक अध्यापकों के। 14,044 पदों पर ही है तैनाती। 
1,50,787 पद हैं सहायता प्राप्त विद्यालयों में प्रधानाचार्य, प्रधानाध्यापक, प्रवक्ता और सहायक अध्यापकों के। पर, 89,403 पद ही भरे हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत तैयार योजना पर अब तक अमल शुरू नहीं हो सका।
उच्च शिक्षा
30 से 50 प्रतिशत तक पद रिक्त हैं उच्च शिक्षा विभाग में सभी राज्य विश्वविद्यालयों में। राजकीय महाविद्यालयों में शिक्षकों के 940 पद खाली हैं। वहीं, सहायता प्राप्त महाविद्यालयों में शिक्षकों के 2357 पद रिक्त हैं। 
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हो गई, पर अब तक वोकेशनल कोर्सेज को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों को मूल्यांकन की कसौटी पर खरा बनाने की आवश्यकता है।

इनसे बदलाव की उम्मीद
10 हजार से अधिक अंग्रेजी माध्यम वाले परिषदीय स्कूलों का संचालन शुरू हुआ।
माध्यमिक शिक्षा में एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम लागू किया गया। n193 नए इंटर कॉलेज खुले और एक नया राजकीय हाई स्कूल खोला गया। 59 नए इंटर कॉलेजों की स्वीकृति दी गई। nतीन नए राज्य विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई n78 नए राजकीय महाविद्यालय खुले। n3 नए निजी विश्वविद्यालय शुरू किए गए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति से ही पटरी पर आएगी व्यवस्था

आबादी के लिहाज से प्रदेश शिक्षा के क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ रहा है। उच्च शिक्षा में शोध, अनुसंधान और तकनीक पर गुणात्मक वृद्धि  हुई है। स्कूल जोकि हमारी शिक्षा व्यवस्था का बुनियादी ढांचा हैं, उनमें भी काफी सुधार हुए हैं। मौजूदा शैक्षिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को जल्द से जल्द अमल में लाना होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन समिति का सदस्य होने के नाते मैंने कई प्रदेशों का दौरा किया है। यूपी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में न्यूनतम साझा पाठ्यक्रम और क्रेडिट स्कोर सिस्टम लागू करने वाला पहला राज्य है। प्रदेश सरकार की ओर से परिषदीय स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए मिशन कायाकल्प जैसी योजनाएं शुरू कीं। इनका असर अब स्कूलों में दिखने लगा है। -कृष्ण मोहन त्रिपाठी, पूर्व माध्यमिक शिक्षा निदेशक और एनईपी ड्राफ्ट कमेटी के सदस्य

प्रदेश की स्थिति को देखकर बने नीति
आजकल लोग स्कूलों में दिल्ली मॉडल की बात करते हैं। पर, यह भी देखना चाहिए कि दिल्ली में जितने राजकीय विद्यालय हैं उतने विद्यालय तो यूपी के एक जिले में हैं। यूपी के सरकारी स्कूलों में जिन परिवारों का बच्चा पढ़ने आता है उनकी प्राथमिकता शिक्षा नहीं, रोजी-रोटी है। इसलिए यूपी की शिक्षा नीति उन परिवारों को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। केंद्र सरकार की समग्र शिक्षा नीति के तहत शिक्षकों भर्ती होनी चाहिए। शिक्षा को बढ़ावा देने में सबसे अहम योगदान शिक्षक का है। लेकिन प्रदेश में 70 प्रतिशत से अधिक शिक्षक ऐसे हैं जो अपने घर परिवार से चार पांच सौ किलोमीटर दूर किसी अन्य जिले के विद्यालय में कार्यरत हैं। ऐसे में शिक्षक घर परिवार की समस्याओं के तनाव में रहते हैं। -दिनेश चंद्र शर्मा, अध्यक्ष उत्तर प्रदेशीय प्राथमिक शिक्षक संघ
 
गरीबों की पहुंच से   बाहर होती शिक्षा

 सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या कम होने और मेरिट हाई हो जाने के कारण गरीब और मध्य वर्ग के बच्चों को उसमें प्रवेश नहीं मिल पाता है। राजकीय महाविद्यालय में स्नातक की शिक्षा का खर्च जहां अधिकतम 10 से 15 हजार हजार रुपये प्रतिवर्ष है, वहीं अच्छे निजी महाविद्यालयों में दो से तीन लाख रुपये तक अदा करने पड़ते है। ऐसे में गरीब परिवार के बच्चों के समक्ष दो ही रास्ते बचते हैं, या तो वे कर्ज का बोझ झेलते हुए पढ़ाई जारी रखें या फिर पढ़ाई छोड़कर रोजी-रोटी के जुगाड़ में लग जाएं। -महेश मिश्रा, लखनऊ मंडल अध्यक्ष, राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ

उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के प्रयास नहीं हुए
विदेशों से आयातित मॉडल पर विश्वविद्यालय बना दिए गए, भारतीय संस्कृति से उनका मेल-जोल नहीं देखा गया
प्रो. भूमित्र देव
( चार विवि में कुलपति रह चुके हैं)
गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने कहा था कि भारत में जो विश्वविद्यालय स्थापित हुए वह विदेशों के आयातित मॉडल पर बनाए गए। वह चल कैसे रहे हैं, इस पर विचार ही नहीं किया गया। हम पर जो शिक्षा पद्धति थोपी गई उसे लेकर ही आगे बढ़ते रहे। भारतीय संस्कृति से उसका मेल-जोल नहीं देखा गया। यही नहीं विदेशों में चल रहे प्रयोग पर ध्यान नहीं दिया गया।

महाराष्ट्र की तरह सभी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नैक मूल्यांकन की व्यवस्था होनी चाहिए। वहां एक अधिकारी होते हैं जो यह देखते हैं कि किस महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में नैक मूल्यांकन में क्या कमियां सामने आई हैं। यूजीसी ने देश भर में सभी जगह 33 प्रतिशत वोकेशनल कोर्स की परंपरा को स्वैच्छिक तौर पर शुरू किया था। पर, विश्वविद्यालयों ने इसे धीरे-धीरे बंद कर दिया।  पूर्व राज्यपाल केएम मुंशी ने सर्वोत्तम विद्यार्थियों के लिए चांसलर कैंप लगाने की व्यवस्था शुरू की थी। इन कैंपों में वह खुद बैठते थे। राज्यपाल के जाने के बाद उस व्यवस्था को बंद कर दिया गया।
 
विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में शोधपत्रों को गुणवत्ता के अनुसार प्रदर्शित किया जाना चाहिए। इससे अनुसंधान करने वालों को प्रोत्साहन मिलेगा। शिक्षा निरीक्षक की जिम्मेदारी होती है कि जहां अच्छा काम हो रहा है, उसके बारे में दूसरे संस्थानों को बताकर उसे अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें। लेकिन हमारे यहां स्वस्थ परंपराओं के प्रचार की इच्छा नहीं है। यूजीसी का काम गुणवत्ता को देखना है, लेकिन यह संस्था ऐसा नहीं करती है। मेरा मानना है कि प्रदेश में उच्च शिक्षा की व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए जो प्रयास होने चाहिए थे, वे नहीं हुए।

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