Home PRIMARY KA MASTER NEWS लाभ की अपेक्षा रखने के जगह समाज को सरकारी विद्यालयों के विकास में भागीदार बनने की है आवश्यकता

लाभ की अपेक्षा रखने के जगह समाज को सरकारी विद्यालयों के विकास में भागीदार बनने की है आवश्यकता

by Manju Maurya

देश की उन्नति में बेहतर शिक्षा का होना अत्यंत आवश्यक है। परंतु आए दिन शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर सरकारी स्कूलों को निशाने पर लिया जाता है।

बड़ा सवाल है कि क्या सरकारी स्कूलों की स्थिति शिक्षकों या प्रशासन के कारण ही खराब है या इसके अलावा इसमें छात्र और अभिभावकों की भी लापरवाही है! इसी बात पर विचार करते हुए बरेली के एसोसिएट प्रोफेसर आलोक खरे ने एक पोस्ट लिखा है, जिसके माध्यम से विद्यालयों के खस्ताहाल होने की असल कारणों को बारीकी से जाना जा सकता है…

सरकारी स्कूल पर अंगुली उठाने वाले लोग कभी सोचे है कि सरकारी स्कूल में जाने वाले बच्चों के अभिभावक कभी बच्चे को स्कूल छोड़ने गए हो, कभी चिंता की हो कि उनका बच्चा स्कूल जा भी रहा है या नही?

कभी समय का ध्यान रहा हो कि बच्चा स्कूल लेट हो गया है? कभी चिंता करते है कि बच्चे के पास कलम, कॉपी, किताब है भी या नही?

कभी चिंता करते है कि स्कूल का मिला गृह कार्य किया है या नही? कभी चिंता करते है कि आज बच्चा कुछ सीखा है या नही? कभी स्कूल में सिखाये गए कार्य को दोहरवाये है?

जवाब होगा नही। लेकिन वही बच्चा प्राइवेट स्कूल में नामांकित होता है तो धारणाये बदल जाती है। बच्चे से पहले उठना, उसके नास्ते, बस्ता, की चिंता शुरू कर देते है। समय से स्कूल पहुचाते है भले वे स्वयं अपने कार्य को लेट हो जाये। स्कूल से आते ही गृह कार्य बनवाने और याद करवाने में लग जाते है। उनके एक एक छोटी चीज की चिंता होने लगती है।

जबकि यह सत्य है कि सरकारी विद्यालयों में प्रशिक्षित शिक्षक, टेट/सीटेट/दक्षता उतीर्ण करके शिक्षा शास्त्र की जानकारी रखने वाले योग्य शिक्षक है। फिर भी अंगुली सरकारी शिक्षकों पर ही उठाएंगे।

दुनिया में कोई है जो 4.97 पैसे में एक बच्चे को भोजन करा दे। एक दिन बारात में 200 लोगो के भोजन के लिए 3 महीने पहले से व्यवस्थाये शुरू हो जाती है। लेकिन विद्यालयों में प्रतिदिन 200 से 1000 बच्चे को पढ़ाने के अलावा भोजन भी कराया जाता है। कही संभव है?

विद्यालय के आधे शिक्षक तो सरकार के लिए आंकड़े जुटाने में लगे रहते है। फिर भी सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करती है और लक्ष्य तक नही पहुचने या विरोध करने पर बलि का बकरा बना देती है। समाज को चिंतन करने की आवश्यकता है कि विद्यालय समाज के अंदर है या बाहर? विद्यालय से लाभ के अपेक्षा रखने के जगह विद्यालय के विकास में भागीदार बनने की आवश्यकता है।’

लेखक – आलोक खरे
एसोसिएट प्रोफेसर
बरेली कॉलेज, बरेली

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