Home PRIMARY KA MASTER NEWS स्कूलों में बच्चों को सुरक्षा के लिए इतने नियम कानून होने के बाद भी सुरक्षित क्यों नहीं? पढ़िए क्या एक्सपर्ट

स्कूलों में बच्चों को सुरक्षा के लिए इतने नियम कानून होने के बाद भी सुरक्षित क्यों नहीं? पढ़िए क्या एक्सपर्ट

by Manju Maurya

नई दिल्ली। आज शिक्षा का पूरा परिवेश बदल गया है। दिल्ली-एनसीआर के स्कूलों में शिक्षा का स्तर और उनकी इमारत, आधारभूत ढांचा देखने देश और विदेश से लोग आते हैं। दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था को ‘वर्ल्ड क्लास’ का खिताब दिया जाता है। यहां की राज्य सरकार भी शिक्षा का बजट देश के अन्य राज्यों से ज्यादा रखने का दावा करती है, लेकिन फिर भी स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा आज भी चिंता का विषय है। साल दर साल जिस तरह से स्कूलों में बच्चों के साथ अपराध हो रहे हैं या कोई बड़ी घटना घटित हो रही है, उससे किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए हर संबंधित व्यक्ति जिम्मेदार है।

स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा को लेकर समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, बाल आयोग, शिक्षा विभाग द्वारा आदेश व दिशानिर्देश जारी किए जाते रहे हैं, नीति बना ली जाती है लेकिन स्कूलों में ऐसे लागू करना सबसे अहम काम है। स्कूलों का रवैया कुछ इस प्रकार है कि जब तक स्कूल परिसर में छात्र के साथ कोई जुर्म हो ना जाए, तब तक वो छात्रों की सुरक्षा के बारे में सोचते तक नहीं हैं। नियमानुसार तो हर स्कूल में पाक्सो कमेटी, बुलिंग कमेटी, डिसीप्लिनरी कमेटी, चाइल्ड प्रोटेक्शन कमेटी, स्कूल सेफ्टी कमेटी व अन्य कमेटियां होनी चाहिए।

यहां तक कि स्कूल के बाहर एक ‘शिकायत पेटी’ का भी प्रविधान है, परंतु जैसा कि हमेशा से ही देखा गया है अधिकांश स्कूलों में ये सभी कमेटियां नदारद हैं या फिर केवल कागजों की शोभा बढ़ा रही हैं क्योंकि इनको सुनिश्चित करने व जांच करने की जिनकी जिम्मेदारी है, वे सभी पदाधिकारी अपने कर्तव्य से विमुख रहते हैं। स्कूलों की चारदीवारी के अंदर लगातार हो रही घटनाएं इस बात का साक्ष्य हैं। सभी समितियों के आधार में अभिभावकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

कमेटी में महज स्टांप न बनें अभिभावक

दिल्ली के अधिकांश स्कूलों में स्कूल प्रबंधन समिति (एसएमसी) व अभिभावक शिक्षक संघ (पीटीए) नियमानुसार चुनावी प्रक्रिया/ निर्वाचन द्वारा गठित होनी चाहिए। लेकिन एक ओर जहां सरकारी स्कूलों की एसएमसी में पार्टी कार्यकर्ताओं का वर्चस्व दिखता है, वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों में पीटीए में मैनेजमेंट द्वारा चयनित अभिभावकों को ही रखा जाता है।

दोनों अवस्था में अभिभावकों की भागीदारी स्टांप मात्र होती है जो ऐसी घटनाओं को छुपाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सरकार और संबंधित विभागों के स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा के इतने नियम कानून होने के बाद भी स्कूल में बच्चे सुरक्षित क्यों नहीं है? इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार संबंधित जांच एजेंसियां व ढुलमुल अदालती न्याय व्यवस्था है। जिसकी वजह से बहुत से मामले रिपोर्ट ही नहीं हो पाते हैं।

दिल्ली शिक्षा विभाग ने तो स्कूल सुरक्षा के न्यूनतम मानक को लेकर परिपत्र करके इसे सभी स्कूलों में लागू करने के साथ उल्लंघन करने वालों के खिलाफ जीरो टालरेंस की बात कही थी। लेकिन हाल ही में सरकारी स्कूल में शराबी स्कूल में घुस जाता है, दो छात्रओं के साथ कपड़े उतारकर छेड़छाड़ करता है, इस तरह घटना इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि सरकार और संबंधित विभाग केवल स्कूलों में सुरक्षा को लेकर आदेश पारित कर खानापूरी करने तक सीमित हैं। उसका पालन करने और उल्लंघन की दिशा में सख्त कार्रवाई करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।

दिल्ली सरकार के कुल बजट का 24.33 प्रतिशत शिक्षा के लिए रखने का क्या औचित्य जब सरकार अपने गिनती के सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने में अक्षम हो। अगर इसमें सुधार नहीं हुआ तो आने वाले वक्त में अभिभावकों के मन में इस तरह की आशंका बनी रहेगी। अगर हम एक घटना होने के बाद सबक नहीं लेते हैं तो दूसरी घटना को आमंत्रित करते हैं। हमें तय दिशा-निर्देशों का ठीक से पालन सुनिश्चित कराना होगा। औचक निरीक्षण की व्यवस्था हो और साथ ही अध्यापक, अभिभावक और स्कूल अपनी प्रतिबद्धता दिखाएं।

(अपराजिता गौतम, अध्यक्ष, दिल्ली अभिभावक संघ से रितिका मिश्रा की बातचीत पर आधारित)

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